आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मीयता का माधुर्य और आनंद आत्मीयता का माधुर्य और आनंदश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मीयता का माधुर्य और आनंद
प्रेम संसार का सर्वोपरि आकर्षण
क्या रागी और क्या विरागी, सभी यह कहते पाए जाते हैं कि-"यह संसार मिथ्या है, भ्रम है, दुःखों का आगार है", किंतु तब भी सभी जी रहे हैं। ऐसा भी नहीं कि लोग विवशतापूर्वक जी रहे हैं। इच्छापूर्वक जी रहे हैं और जीने के लिए अधिक से अधिक चाहते हैं, सभी मरने से डरते हैं। कोई भी मरना नहीं चाहता।
दुःखों के बीच भी जीने की यह अभीप्सा प्रकट करती है कि संसार में अवश्य ही कोई ऐसा आकर्षण है जिसके लिए सभी लोग दुःख उठाने में तत्पर हैं। देखा जा सकता है कि लोग सुंदर फल-फूलों को प्राप्त करने के लिए कटीले झाड़-झंखड़ों में धंस जाते हैं। मधु के लिए मधुमक्खियों के डंक सहते हैं। मानिक-मोतियों के लिए भयंकर जंतुओं से भरे समुद्र में पैठ जाते हैं। वे फूलों-फलों, मधु और मणिक, मोतियों के लिए काँटों, मक्खियों और मगर-मत्स्यों की जरा भी परवाह नहीं करते। उनकी चुभन, दंश और आक्रमण को साहसपूर्वक सह लेते हैं।
तो इस दुःख और कष्टों से भरे संसार सागर में ऐसा कौन-सा फल, मधु अथवा रत्न है जिसके लिए मनुष्य दुःखों का भार ढोता हुआ खुशी-खुशी जीता चला जा रहा है और जब तक अवसर मिले जीने की इच्छा रखता है ? निश्चय ही संसार का वह फल, वह मधु और वह रत्न प्रेम है, जिसके लिए मनुष्य जी रहा है और हर मूल्य पर जीना चाहता है। अब यह बात भिन्न है कि उनका अभीष्ट प्रेम सांसारिक है, वस्तु या पदार्थ के प्रति है, अथवा प्रेम-स्वरूप परमात्मा के प्रति है। दिशाएँ दो हो सकती हैं, किंतु आस्था एक है और आकर्षण भी अलग-अलग नहीं है। इसी प्रेमस्वरूप आधार पर संसार ठहरा हुआ है। इसी के बल पर सारी विधि-व्यवस्था चल रही है। एक यही संसार का सत्य और सार है जिसे आत्मीयता, प्रेम, अपनत्व आत्म-भाव का आकर्षण कहा जाता है।
आत्मीय संवेदना ही आनंद का आधार है, और आनंद ही मनुष्य की जिज्ञासा है। इस जिज्ञासा की पूर्ति के लिए ही मनुष्य सारे कष्ट उठाता हुआ सुख मानता है। यदि यह जिज्ञासापूर्ण हो जाए, उसे प्रेम का सच्चा रूप प्राप्त हो जाए तब उसके आनंद की सीमा कहाँ तक पहुँच जाएगी इसका अनुमान लगाना कठिन है। इसे तो भुक्तभोगी ही जान सकते हैं।
जिनके हृदय में प्रेम का प्रकाश जगमगा उठता है, उनके जीवन में आनंद भर जाता है। इस हाड़-माँस से बने मानव शरीर में देवत्व के समाविष्ट का आधार प्रेम ही है। प्रेम की प्रेरणा से साधारण मनुष्य उच्च से उच्चतर बनता चला जाता है। प्रेम मानव जीवन की सर्वोच्च प्रेरणा है। शेष सारी प्रेरणाएँ इस एक ही मूल प्रेरणा की आश्रित शाखा-प्रशाखा है। स्वाधीनता और सद्गति दिलाने वाली भावना एकमात्र प्रेम ही है। संसार की रचना और प्रेरणा का सारा तत्व यह प्रेम ही है। इसी से जीवन समृद्ध बनता, दुःख की निवृत्ति होती है और परम लक्ष्य की प्राप्ति होती है। प्रेम परमात्मा रूप है, आनंद और उल्लास का आदि तथा अंतिम स्रोत है।
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